Sunday 25 March 2018

Killing of Indian workers in Iraq : Workers should protest against the government apathy


25 March 2018 

Killing of Indian workers in Iraq : Workers should protest against the government apathy  


            Harjit Masih, the lone survivor among the 40 abducted Indian workers , in his interview published in 'The Hindu' (24 March 2018) has given detailed description about the tragic incident. He stated in a clear cut manner that the Indian government officials took him into their custody on his return and told him not to reveal the truth about the killing of his 39 fellow workers. The officials made him believe that the truth revealed by him could put him and his family at risk as relatives of those ''dead'' could get enraged. He told the government officials that the workers were kidnapped by Islamic State fighters from the factory at Mosul in Iraq in June 2014 and killed in a lonely place after two days of the kidnapping. The detailed revelation of the incident by Harjit Masih proves that the government had kept misleading not only the Parliament but the families of the deceased for four years.
            The Socialist Party condemns this untruthful and inhuman act on the part  of the government. In fact, the External Affair Minister, Sushma Swaraj, who kept misleading the relatives about the safety of the abducted workers, made the announcement in the Parliament only under pressure and compulsion. The reason is that the Iraqi officials had planned a press conference on this matter on the same day i.e. Tuesday, 20 March 2018. This episode has also exposed the hollowness of government's claims about the strong foreign relations in the leadership of Prime Minister Narendra Modi.    
            The Socialist Party believes that the government could dare to exhibit  such insensitive behaviour because the victims were ordinary labourers from poor families. The ruling establishment, guided by the market values, has lost its human  ground.  The government might have assumed that it can barter the shock, anger, sense of betrayal and tears of the poor by offering them some amount of money which it has looted from these very  hard working masses.
            The relatives of the workers killed in Iraq got the news from TV channels, and not directly from the government. This means that the government does not even consider the poor to deserve that they should be informed of the death of their loved ones. Sardara Singh, father of 36-year-old Gurcharan Singh, expressed his anguish that every time they met Mrs. Sushma Swaraj, she used to swear by 'kali maa' and assured 'children are safe'. He questioned the External Affairs Minister, 'where is that promise now?' That is, the government assumes that it is not necessary to speak the truth to the poor. Therefore, it is not surprising that the government has not understood the need to apologise to the families of the dead.

            The Socialist Party demands that the government should immediately tender an apology to the relatives of the victims, if it has  any regard for humanity and  civility. At the same time, the Socialist Party invites the Indian workers in the country and abroad to strongly oppose the corporate-friendly government in order to protect their  interests.  The fact should be kept in mind that the Indian workers who work in the Middle East bring huge amounts of foreign money to India. Their contribution is no less than the non-resident Indians in any sense.

Dr. Prem Singh
President
Mob. 8826275067

इराक में भारतीय मज़दूरों की हत्या : मजदूरों को सरकार की उपेक्षा के विरोध में उतरना चाहिए


25 मार्च 2018 

इराक में भारतीय मज़दूरों की हत्या : मजदूरों को सरकार की उपेक्षा के विरोध में उतरना चाहिए

                इराक के मोसुल शहर में इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों द्वारा बंधक बनाये गए 40 मज़दूरों में से अकेले बचे हरजीत मसीह ने 'दि हिंदू' अखबार (24 मार्च 2018) में प्रकाशित इंटरव्यू में पूरी घटना का ब्योरा दिया है. उसने कहा है कि भारत लौटने पर उसे गिरफ्तार कर कई महीनों तक हिरासत में रखने वाले सरकारी अधिकारियों ने हिदायत दी थी कि वह 39 साथी मज़दूरों के मारे जाने की सच्चाई किसी को नहीं बताए. ऐसा करने पर उसे मृतकों के परिवार वालों के गुस्से का शिकार होना पड़ सकता है. हरजीत मसीह ने अधिकारियों को बताया था कि इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने 40 भारतीय मज़दूरों को जून 2014 में कारखाने से अगुआ किया था और दो दिन बाद वीरान जगह पर गोलियों से हत्या कर दी थी. हरजीत मसीह एक साथी की लाश के नीचे दब कर बच गए थे. हरजीत मसीह के इस बयान से यह साफ़ है कि सरकार इस मामले में न केवल संसद बल्कि मज़दूरों के परिजनों से पिछले चार सालों से झूठ बोल रही थी. 
      सोशलिस्ट पार्टी सरकार के इस मिथ्या और अमानवीय कृत्य की निंदा करती है. दरअसल विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने मज़बूरी में सच्चाई उजागर की है, क्योंकि उसी दिन यानि मंगलवार 20 मार्च 2018 को इराकी अधिकारियों ने इस मामले में प्रेस कांफ्रेंस करना तय किया था. इस घटना ने सरकार की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में विदेशों में भारत की मज़बूत साख बनाने के दावों की भी पोल खोल दी है.
      सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि सरकार इस तरह का असंवेदनशील रवैया इसीलिए अपना पाई क्योंकि इराक में मारे गए लोग साधारण मज़दूर और गरीब परिवारों से थे. बाजारवादी मूल्यों से परिचालित शासक वर्ग ने मानवीयता का त्याग कर दिया है. सरकार ने सोच लिया होगा कि मारे गए लोगों के परिजनों के सदमे, आक्रोश और आंसुओं की कीमत उन्हीं की गाढ़ी कमाई से लूटी गई दौलत में से कुछ रकम देकर चुका दी जायेगी.
      इराक में मारे गए मज़दूरों के परिजनों को यह खबर सरकार से सीधे नहीं, टीवी चेनलों से मिली. इसका अर्थ है सरकार गरीबों को इस लायक भी नहीं समझती कि उनके प्रियजनों की मौत की सूचना उन्हें दी जाए. मारे गए एक मज़दूर 36 वर्षीय गुरचरण सिंह के पिता सरदारा सिंह ने कहा कि फिर श्रीमती सुषमा स्वराज काली माँ की कसम खा कर उनसे बार-बार यह क्यों कहती रहीं कि 'बच्चे सुरक्षित हैं'? इस सवाल का उनके पास क्या जवाब है? ज़ाहिर है, सरकार मान कर चलती है कि गरीबों से सच बोलना जरूरी नहीं है. लिहाज़ा, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकार ने मृतकों के परिजनों से माफ़ी मांगना ज़रूरी नहीं समझा है.
      सोशलिस्ट पार्टी की मांग है की सरकार में यदि ज़रा भी मानवता और सभ्यता शेष है तो उसे मृतकों के परिजनों से तुरंत माफी मांगनी चाहिए. लेकिन साथ ही सोशलिस्ट पार्टी देश और विदेशों में दिन-रात मेहनत करने वाले मज़दूरों का आह्वान करती है कि वे अपने हितों की रक्षा के लिए कार्पोरेट समर्थक सरकार का पुरजोर विरोध करें. ध्यान रहे, मध्य-पूर्व में काम करने वाले भारतीय मज़दूर भारी मात्रा में विदेशी धन भारत में लेकर आते हैं. उनका योगदान किसी भी मायने में अनिवासी भारतीयों से कम नहीं है.   

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष
मोबाइल : 8826275067

Saturday 24 March 2018

मानव संसाधन विकास मंत्रालय शिक्षण संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों को स्वायत करने का निर्णय वापस ले





मानव संसाधन विकास  मंत्रालय का शिक्षण संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों (केंद्रीय, राज्य, निजी) को स्वायत करने का निर्णय छात्र विरोधी हैं | आननफानन में लिए गए इस निर्णय से विशेष तौर पर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों के हितों पर कुठाराघात होगा | शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में पहले से ही कई तरह की बाधाओं से घिरी लड़कियों, विशेष तौर पर गाँव/कस्बो की लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा और ज्यादा दुर्लभ होगी | ऑनर्स की डिग्री हासिल करने के इच्छुक छात्रों और उनके अभिभावकों पर आर्थिक बोझ असहनीय होगा |
            निजी संसथान, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राज्य विश्वविद्यालयों को नए पाठ्यक्रम लागू करने, नए विभाग, स्कूल और कैंपस खोलने के लिए विश्वविद्यालयों अनुदान आयोग (यूजीसी) की परमिशन की दरकार नहीं होगी, पर साथ ही यूजीसी की ओर से कोई अनुदान नहीं मिलेगा | इसका मतलब साफ़ है कि उन्हें छात्रों से लाखों में फ़िस वसूलना होगा|
            भारत जैसे देश में जहाँ विषमता अलग-अलग रूपों में पहले से विद्यमान है ऐसे में शिक्षा के क्षेत्र में स्वायतता का फंदा शिक्षा प्राप्ति के अरमानों का गला घोंटेगा | हमें यह नहीं भुलाना चाहिए कि किसी भी राष्ट्र का नैतिक-स्वालंबी रूप उसकी शिक्षा से तय होता है | उच्च शिक्षण संस्थानों के स्वायतता के नाम पर लाखों करोडो वंचितों को शिक्षा से दूर करने का यह WTO मॉडल है , जिसे बड़ी बेशर्मी से मौजूदा सरकार विश्वविद्यालयों पर थोप दिया हैं |
            यह अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण है कि अपने पद की गरिमा और जिम्मेदारी का निर्वाह न करके मानव संसाधन मंत्री छात्रों के भविष्य के साथ खेल रहे हैं | देश के राष्ट्रपति, जो विश्वविद्यालयों के विजिटर भी होते हैं, और प्रधानमन्त्री ने भी छात्र और उच्च शिक्षा विरोधी इस नीति की तरफ से आँखे बंद की हुई हैं | ऐसा क्यों है ? दरअसल, यह नवउदारवादी नीतियों के तहत देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को नष्ट करके यहाँ विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए शिक्षा का बाजार उपलब्ध कराना है छात्रों के भविष्य और शिक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ का ऐसा उदाहरण दुनिया में अन्यंत्र नहीं मिलता |
            सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) मांग करती हैं कि मानव संसाधन मंत्रालय विश्वविद्यालयों को स्वायत करने का निर्णय अविलम्ब वापस ले | साथ ही सोशलिस्ट युवजन सभा दिल्ली व देश के सभी छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों से अपील करती है कि वे विश्वविद्यालयों को स्वायत करने के निर्णय के खिलाफ हर संभव पुरजोर विरोध करें और सरकार पर इसे अविलम्ब रद्द करने का दबाव डालें |
 नीरज कुमार
अध्यक्ष
सोशलिस्ट युवजन सभा

Thursday 22 March 2018

यूजीसी आरक्षण संबंधी नया प्रस्ताव वापस ले


प्रेस रिलीज

नीरज कुमार, अध्यक्ष
सोशलिस्ट युवजन सभा 
सोशलिस्ट युवजन सभा का मानना हैं कि यदि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग  द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजा गया उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति के नियमों में एक बड़ा परिवर्तन करने का प्रस्ताव आरक्षण विरोधी, एससी, एसटी और ओबीसी के साथ धोखा हैं | यदि इस प्रस्ताव को मंत्रालय की स्वीकृति मिल जाती है, तो विश्वविद्यालयों और इससे संबंध कॉलेजों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित होने वाले शिक्षक पदों में भारी कमी हो जाएगी | यूजीसी का प्रस्ताव यह कहता है कि विश्वविधालय में आरक्षण लागू करते समय पूरे विश्वविद्यालय को इकाई मानने की जगह अलग-अलग विषयों/ विभागों को इकाई माना जाए | अभी तक विश्वविद्यालय में पूरे विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता था | यूजीसी के इस प्रस्ताव से अनुदान प्राप्त 41 केंद्रीय विश्वविद्यालय में रिक्त पड़े 5997 पदों पर होने वाली नियुक्तियों पर भी पड़ेगा | केंद्रीय विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के कुल 17106 पद है | इसमें से 5997 पद रिक्त है | जो कुल पदों का 35 प्रतिशत है | यदि विश्वविद्यालय को इकाई मानने का नियम जारी रहता है तो कम-से-कम 3000 के आसपास पदों पर एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों से आने वाले शिक्षकों को नियुक्त करना बाध्यता होती | साथ ही कुछ पद दिव्यागों के हिस्से भी जाते, जिनके लिए चार प्रतिशत आरक्षण है | पर यदि विभाग को इकाई मानने की यूजीसी का नया प्रस्ताव लागू होता है, तो इन समुदायों के नहीं के बराबर शिक्षक नियुक्त होंगे | दिव्यागों को तो शायद ही कोई पद प्राप्त हो पाए | शिक्षा जगत, समाज, राष्ट्र और विशेष तौर पर बहुजनों पर इसका कितना गंभीर और दूरगामी असर पड़ेगा, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती हैं | सोशलिस्ट युवजन सभा मांग करती हैं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इस प्रस्ताव को अविलम्ब वापस ले |

नीरज कुमार
अध्यक्ष
सोशलिस्ट युवजन सभा 

Thursday 15 March 2018

No Conflict between Hindi and State Regional Languages

No Conflict between Hindi and State Regional Languages

Rajindar Sachar

For some time past a misguided effort is being made to castigate India for asking U.N. General Assembly of U.N. to include Hindi as one of the languages at U.N. They seem to suggest that English should be recognized as language of India because Hindi is not understood in whole of India, but they conveniently forget that Hindi is the language of over whelming number of people. Of course it is not in any way an attempt to reduce the respect owed to other Indian languages which are of equal status with Hindi. It is a question of whether a sovereign India should have its own language just as England, France, Germany are provided at U.N. This would show Hindi in equal position at international fora with other foreign languages. So that the demand the country must have one language of its own at international forum at U.N. for this purpose cannot be objected.
In presenting Dr. Lohia as Hindi fanatic, even against the other languages of India is to do great injustice to his philosophy. No doubt Dr. Lohia was against the exclusive small number of English knowing people about 4% to represent at U.N. He treated all Indian languages on equal footing. But each country can have only language to represent it at international fora. So at U.N. one language alone can be recognized. This is why one of the largest spoken Language Hindi should be at U.N. fora.
Let me give his philosophy of Angrezi Hatao in his own words;
“It is now impossible to banish the public use of English without the desire of the people. The policy of removal of English gradually, which has been adopted by the government of India, is proving more dangerous than the policy of retaining English forever. The chief problem is the removal of English and not the establishment of Hindi. This clarification is necessary, for the non-Hindi speaking states like Mysore, Bengal; Tamil Nadu should have the option not to use Hindi at all. They may use their own language but they also must remove English.”
“A correct language policy has been evolved. Hindi should be the language of the central government immediately after, the gazetted posts of the central government should be reserved for non-Hindi speaking areas for ten years. The centre should correspond with states in Hindi and the states should correspond with the centre in their regional languages until such time they learn Hindi. The medium of education up to graduate course should be the regional language and for post-graduate studies, it should be Hindi. The district judge and magistrate may use their regional languages whereas the High Court and Supreme Court should use Hindustani. The speeches in Lok Sabha should generally be made in Hindustani but members who do not know Hindi may speak their own language. Although it is a correct language policy, any state or its government which may not like to adopt this policy and wishes to continue with its regional language should have the freedom to do so. It should not be objected to although it will be a regrettable situation. I believe this is a temporary difficulty. Therefore, keeping in view the pernicious propaganda and in the interest of the nation, the chief aim of our movement should be removal of English and not the establishment of Hindi. It is certain that Hindi shall be established on an all India level in due course. But if in some states or even on the all India level. Marathi or Bengali is established, we should not mind it.”
I can recall his pain when he read about the misunderstanding of his position on languages and which caused the set back to the development of National languages and correct language policy. It happened sometime in 1960s when I had the privilege of Dr. Lohia coming on socialist party programme to Chandigarh.  He stayed at my residence – at that time I was the chair person of the socialist party (Punjab Branch).
I remember however a very pained Lohia when he was staying with me at Chandigarh on next morning, News had came that Anti Hindi Agitators in south had burnt Hindi periodicals.  I still see him sitting quietly with a sad took on his face sitting in the verandah lawn of    my   house at Chandigarh and telling me softly “Rajindar – movement for Hindi is dead – when it will be revived I do not know”. Dr. Lohia was not a Hindi chauvinist. He was for State languages – he believed that presence of English knowing minority of which even now are only 4% will never let poor become the vehicle of politics. He accepted the supremacy of Tamil & Telugu language in the States. He was not against English language as such. He was of the view that in no democratic people’s state, bureaucracy can effectively work for people’s policies unless the administration is carried out in states – in their own people’s language. 

Tuesday 13 March 2018

कारपोरेट पूंजीवाद की और चीन की 'लंबी' छलांग

12 मार्च 2018

प्रेस रिलीज
कारपोरेट पूंजीवाद की और चीन की 'लंबी' छलांग

Dr. Prem Singh, President
Socialist Party (India)


      सोशलिस्ट पार्टी चीन के राष्ट्रपति शी पिंग को आजीवन राष्ट्रपति बनाए रखने के नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (एनपीसी) के फैसले को कारपोरेट पूंजीवाद की एक बड़ी जीत के रूप में देखती है. नेशनल पीपुल्स कांग्रेस ने कल चीन के संविधान में इस आशय के संशोधन को लगभग पूर्ण बहुमत के साथ मंजूरी दी है. संविधान संशोधन का यह प्रस्ताव चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) ने रखा था. राष्ट्रपति शी पिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अनिश्चित समय के लिए महासचिव हैंवे केन्द्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी) के अध्यक्ष भी हैं जिसके आदेशों का पालन चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) करती है. चीन के सत्ताधीशों द्वारा लिया गया यह फैसला लोकतांत्रिक मूल्यों अथवा संस्थाओं के हनन का नहीं है. चीन में एकदलीय शासन प्रणाली है और सभी जानते हैं कि नेशनल पीपुल्स कांग्रेस एक रबर स्टाम्प है जिसके जरिये चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शक्तिशाली नेताओं की इच्छाओं को संवैधानिक जामा पहनाया जाता है.
      सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि इस फैसले के साथ चीन के शासक वर्ग ने कारपोरेट पूंजीवाद की दिशा में 'लंबी' छलांग लगाईं है. चीन के शासक वर्ग द्वारा गढ़े गए 'बाजारी समाजवाद' (मार्किट सोशलिज्म) अथवा 'चीनी चरित्र का समाजवाद' भ्रमित करने वाले पद हैं. ये समाजवाद की वास्तविक अवधारणा और सिद्धांतों से बाहर, कारपोरेट पूंजीवाद की प्रयोगशाला में गढ़े गए हैं. चीन के शासक वर्ग का 'समाजवाद' कारपोरेट पूंजीवाद का अभिन्न हिस्सा है और शी पिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में उसके सबसे मज़बूत स्तम्भ हैं.
      दरअसल, कारपोरेट जगत ने अपनी लूट और मुनाफाखोरी को पक्का और स्थाई बनाए रखने के लिए अपने नेता बनाना शुरु कर दिया है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, रूस में ब्लादिमीर पुतिन, चीन में शी पिंग, भारत में नरेन्द्र मोदी कारपोरेट द्वारा बनाए गए नेताओं में प्रमुख नाम हैं.दुनिया के लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन और विचारधारा के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती का दौर है.

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष
मोबाइल : 8826275067   

China's 'long leap' towards corporate capitalism

Press Release
China's 'long leap' towards corporate capitalism


Dr. Prem Singh, President,
Socialist Party (India)

In Socialist Party' view, the ruling of National People's Congress (NPC) which clears the way for China's president Xi Jinping to serve the country as president indefinitely, is a major victory of corporate capitalism. The National People's Congress yesterday approved the amendment to this effect in the constitution of China with an absolute majority. This proposal of the constitutional amendment was floated by the Communist Party of China (CPC). President Xi Ping is the General Secretary of CPC for an indefinite period. He is also the Chairman of the Central Military Commission (CMC), whose order is followed by the People's Liberation Army (PLA) of China. This decision taken by the Chinese authorities is not about the violation of democratic values ​​or institutions. There is a totalitarian regime in China and, this is a known fact, that the National People's Congress is a rubber stamp to make the desires of the powerful leaders of the CPC constitutional.

          The Socialist Party believes that with this decision, the ruling class of China has made a 'long leap' towards corporate capitalism. The terms such as 'Market Socialism' or 'Socialism with Chinese characteristics', coined by China's leaders, are misleading. These are fabricated outside of the real concept and principles of socialism, and within the laboratory of corporate capitalism. The 'socialism' of China's ruling class is an integral part of corporate capitalism and Xi Ping is its most powerful pillar in the Communist Party of China.

          Indeed, the corporate world has started creating its own leaders to keep its loot and profiteering intact and permanent. Donald Trump in America, Vladimir Putin in Russia, Xi Ping in China, Narendra Modi in India are major names among leaders created by the corporate capitalist establishment. This is the greatest challenge thrown before the democratic socialist ideology and movement by the corporate establishment.

          Dr. Prem Singh
          President
          Mob. : 8826275067

Both Nehru and Patel were the need of hour in 1947 - 48


Both Nehru and Patel were the need of hour in 1947 - 48

Justice Rajindar Sachar

            Prime Minister Narendra Modi while speaking on Budget made one of grievance that Congress did not make Patel as the Prime Minister. Unfortunately no one had advised Modi that the Nehru was Gandhi Ji choice. He had equal respect for both Nehru and Patel.
            There was no rivalry between Nehru and Patel as both realized that India can only prosper if there was good relation and mutual respect for each other. Patel even when he could muster majority in parliament did not try to supplant Nehru. Let me give a few instances where, even when they differed on State Policy, Nehru and Patel not only accepted the others point of view, showed respect to each other.

            In 1947 Maharaja J & K after tribal attack from Pakistan realized that it was no longer possible to remain Independent. So he sent his Prime Minister Justice Mahajan with a letter to Pt. Nehru of acceding of J & K to India so that military assistance could be sent to J & K.

            Mahajan was finding difficult to convince Nehru about immediate acceptance of accession of Kashmir, though Patel agreed with Mahajan. Heated debate was going but Nehru still showing reluctance. At this time Sheikh Abdullah who was listening to this debate came out from the adjacent room to tell Nehru to accept the view of Patel and Mahajan. It was in these circumstances of mutual respect for each other that accession of J & K to India took peace.

Another important event concerned the accession of Hyderabad. It is well known that while Patel was for taking strong action against Nizam of Hyderabad who was wanting to remain Independent and not accede to India (even when his boundaries had no direct linkage with Pakistan). Nehru was still against Military action, but finding that the conditions would become irredeemable Patel decided on his own to send security forces.

            While the security forces were moving in, Nehru came to know about it and telephoned N.V. Gadgil, Minister of State for Home and told him that he immediately wants to talk to Patel about this action. Gadgil then phoned Patel and told him about what Nehru had said. Patel naturally sensed that Nehru would want to stop action against Nizam. So he told Gadgil that he should tell Nehru that he has not been able to contact Patel. The result was that security forces moved, in and Nizam immediately signed the latter of accession to India.

            Nizam realized and understood the working of Nehru and Patel. This is shown by the fact that soon after Nehru went to Hyderabad Nizam did not show the courtesy of receiving him at the airport. But soon after Patel went to Hyderabad he realized the consequence of repeating his foolishness and quietly went to Airport to receive Patel, which was the correct protocol.                 


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